हे अनंत सागर
तुम और मैं कितने एक सामान,
तुम भी निरंतर बह रहे,
मेरे भी आंसूं नहीं ले रहे थमने का नाम
जैसे आता है उफान तुझमें,
हर पूर्णिमा की रात को
मन मेरा भी व्यथित हो उठता है,
लेकर छोटी -छोटी बात को १
कमजोर हूँ ऐसा नहीं
मुझमें भी तुझसा बल है,
अभिलाषाएँ मुझमें भी उतनी
जितना तुझ मे जल है १
भींगी हैं पलकें बस इसलिए
कभी कभी थक मैं जाता हूँ ,
फिर से खड़ा होने के लिए तेरे किनारे आता हूँ १
कहते हैं तेरे गर्भ में श्री हरि का वास है ,
वो ही निर्लेप नारायण हरि मेरे भी ह्रदय के पास है १
तेरे पास आता हूँ तुझमें -
अपनापन पाया है,
मुझमें भी तुझसी गहराई
तुझमें भी मेरा साया है १
शांत तो तू भी नहीं
तेरी लहरों मे भी शोर है,
शांत मेरा चित भी नहीं
हमे बांधती ये ही डोर है १
तू है अनंत,पर क्या -
जानता है अपनी क्षमताओं को ?
मैं भी अनंत,
पर हूँ स्यवं की खोज में...
कोशिश कर रहा हूँ लांघने की-
जीवन विषमताओं को ११
GREAT SIR ......KITNA ACHA LIKHTE HO AAP!! AMAZING!!!!
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