Friday 19 November 2010

संन्यासी मन

शुरू में याद तुम्हारी आई बहुत,
किन्तु मन अब सन्यासी हो गया है १
तुम्हारे मिलन को व्याकुल जो मन था,
शांत चित अब हो गया है १
यदि है ईश सर्वत्र जग में,
इस धरा पर, गहरे सागर में-
अनंत नभ में ...
तो तुममें-मुझमें भेद नहीं,
हम सब हैं अंश उस पराशक्ति के,
फिर पास रहें या दूर तन से-
परिस्थितिओं पर मुझको खेद नहीं १
दूर रहकर भी हम पास हैं,
प्रेमी हैं बिना आसक्ति के
क्या यही निर्लाप्त भाव है-
जिसे पाता है साधक मार्ग पर चल कर भक्ति के ?
यदि हाँ, तो सच में ...
मन संन्यासी हो गया है १
क्या तुम मुझे महसूस कर पाओगे ?
जैसे हर घड़ी तुम्हे पास मैने पाया है ,
सृष्टि के हर रंग में ,
जल की तरंग में,
चंदा की चांदनी मै, सूरज का नूर हूँ
हर पल तुम्हारे पास,
मैं कब तुमसे दूर हूँ ?
थोड़ा दृष्टिकोण बदलो ,
महसूस कर पाओगे -
तुममें-मुझमें भेद नहीं
हम सब हैं अंश उस पराशक्ति के !!

Tuesday 2 November 2010

स्पंदन

जब बात कोई मन को छू जाए
चित में बहुत रुदन होता है
पाषाण ह्रदय में-
 कैसे स्पंदन हो ??
निर्मल चित ही स्पंदित होता है १
मेघ बरसते हैं नभ में क्यूँ ?
क्यूंकि नभ में ऊंचाई है
सागर में तूफ़ान उठे क्यूँ ?
क्यूंकि उसमें गहराई है १
मूरत लेते हुए सपने जब
क्षणभर में बिखर जाते हैं
भाव लेते हैं अश्रुरूप -
अश्रुओं से चित खुद को धोता है १
दुर्बलता बने हास्य का कारण
चित में अस्थिरता बढ़ जाती है
लज्जाहीन को पीड़ा कैसी ?
स्वाभिमानी को लाज बहुत आती है १
जब कहनी हो बहुत सी बातें
नहीं सुनने वाला कोई होता है
यह पीड़ा केवल वे जन ही जानें -
जिनसे दूर कोई उनका होता है १
अनुभव ही तो सिखलाते  हैं
सम्पूर्ण कहाँ कोई होता है
निर्मलता  रहती है अंत:करण में जिनके
उनका ह्रदय स्पंदित होता है १