Tuesday 7 December 2010

जगमगाता शहर

इस जगमगाते शहर में
मानव जैसे खो गया है 
देखा टटोलकर बहुत जन को
अंतर्मन सबका जैसे खो गया है १
कहीं खो गयी संवेदना 
जो मानवता का श्रृंगार है
प्रगति पथ पर बढते  मानव की-
 सबसे बड़ी ये हार है १
आडंबर से ओतप्रोत
सबने खोया अपना होश है 
इस मानव मन की विकृति के पीछे-
 आखिर किसका दोष है ?
क्यों छोड़ मूल भाव ह्रदय के -                
सब ऊचाई को चाहते हैं ?
क्यूँ भूल रहे सत्य यह शाश्वत
शुद्ध अंत:करण है जिनका
वे जन ही  ऊचाई को पाते हैं १
ढल गया दिन हुई जगमग राहें 
इन राहों पर मैं भी चलता हूँ
ढलते हुए हर दिन क साथ 
पल-पल मैं भी ढलता हूँ १
 घुटता  है दम यहाँ,
साँसों मे भी भारीपन है 
शिकायत तो नहीं किसी से,
किन्तु यहाँ लगता नहीं मेरा मन हैं १
सांझ हुई है,
इस वेला में-
हे इष्ट तुम्हे वंदन करता हूँ,
नहीं खोने देना मुझको चमक मे
खो जाने से मैं डरता हूँ ११ 


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